जिस घर में मेरा जन्म हुआ, वह बिल्कुल साधारण, झोंपडी-सा था । उसमें माताजी के मातुश्री भी रहते थे । उनका नाम रुक्मिनी था लेकिन लोग उन्हें प्यार से रुखीबा कहते थे । वो बिल्कुल पढी-लिखी नहीं थी किन्तु उनकी सुझबुझ और व्यवहारिक ज्ञान काफि था । लोग अक्सर उनकी सलाह लेते थे । वह मानो दया की मूर्ति थी । औरों के दर्द से उसका दिल पीघल जाता था । वो पीडित व्यक्ति को सहाय करने की पूरी कोशिश करती । उनकी ईश्वर में बडी आस्था थी । गाँव में स्थित रणछोडजी के मंदिर में उनका हररोज आना-जाना था । मंदिर में लगी कृष्ण की मूर्ति को निहारकर भावुक हो जाती, और आंसू बहाने लगती । उनका हृदय बहुत पवित्र था ।
उनकी मृत्यु कुछ अनोखे ढंग से हुई । मेरी उम्र उस वक्त करीब सत्रह साल की होगी । छुट्टिओ में मैं मुंबइ से गाँव आया था । उस दिन वैशाखी पूर्णिमा का ग्रहण था । साबरमती में स्नान करके वो मंदिर दर्शन करने गई लेकिन बुखार होने पर वह घर आकर लेट गई । वह उनकी जिन्दगी का आखरी बुखार था ।
दुसरे दिन भी उनका बुखार जारी रहा । उस अवस्था में उनको चित्रविचित्र अनुभव होने लगे जिसका वर्णन वह इकट्ठे हुए लोगों को करने लगी । कहने लगी, मेरे जाने का वक्त अब पास आ गया है । दो पितांबरधारी संन्यासी ओर एक रेशमी वस्त्र परिधान की हुइ स्त्री मुझे लेने के लिए आये है । वे कह रहे हैं कि मेरे जाने का वक्त समीप है इसलिए तैयार हो जाओ । मैंने उन्हें बताया कि वैसे तो मुझे उनके साथ चलने में कोइ दिक्कत नहीं है मगर मेरा एक काम अभी अधूरा है । मेरा लडका वडौदा रहता है, मुझे उससे मिलना है । एक बार मेरी उससे मुलाकात हो जाए तो फिर मुझे चलने में कोइ आपत्ति नहीं है ।
थोडी देर बाद वो फिर बोली की मेरी यह वात उन्होंने कबुल कर ली है । वे लोग चले गये है ओर यह बताकर गये है कि तीन दिन पश्चात वो वापस लौटेंगे ओर मुझे अपने साथ ले जायेंगे । इसलिए कृपया रमणभाई को बडौदा से फौरन बुला लो ।
रुखीबा की बातें आम आदमी के लिए समजना मुश्किल था । फिर भी वक्त की नजाकत को देखते हुए वडौदा से रमणभाई को तार भेज के बुलाया गया । सब ये सोचते थे कि ये तो साधारण बुखार है ओर एक-दो दिन में उतर जायेगा । किन्तु यह मान्यता गलत निकली । बुखार यथावत रहा । रमणभाई जब वडौदा से आये तो उन्हें मिलकर रुखीबा को बड़ा सुकून मिला । दोपहर को उन्होंने मुझे दीया जलाने को कहा ओर पास बैठकर गीतापाठ करने को कहा । मैंने गीतापाठ पूर्ण किया । बाद में रमणभाई के हाथ में माताजी का हाथ रखके कहा कि बहन की अच्छी तरह से देखभाल करना । रमणभाई ने वचन दिया और उनकी ओर से ढाढस बंधाई ।
शाम को जो भी उनको मिलने आया, सबसे उन्होंने बडे प्यार से बातें की । रात होने पर वो बोली, अब वह संन्यासी ओर स्त्री मेरे पास आये है । वे मुझे पूछ रहे है कि मेरा कार्य संपन्न हुआ की नहीं । अब मेरा जाने का वक्त आ गया है ।
उसी रात्रि को उन्होंने देहत्याग किया । मृत्यु का समय बताकर देहत्याग करने का प्रसंग मेरे लिये अपूर्व था । मैंने सुना था कि योगी और भक्तो कों एसा ज्ञान यद्यपि होता है किन्तु रुखीबा तो एक साधारण व्यक्ति थी । उनका हृदय भावपूर्ण व सरल जरुर था किन्तु वह कोई सिद्ध योगिनी नहीं थी । ईश्वर पर उनकी गहेरी श्रद्धा थी अतः उनको एसा असाधारण अनुभव हुआ । ये सच है कि ईश्वर की कृपा के लिए कोई पंडिताई की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ साफ हृदय ही काफी है ।
जिस दिन रुखीबा का देहांत हुआ उसी दिन गाँव के कुम्हार को स्वप्न आया । उसने देखा की गाँव के बाहर एक विमान खडा है और तीन-चार आदमी रुखीबा को लेकर जा रहे है ! जो भी हो, रुखीबा चल बसी और उनका देहपिंजर पीछे रह गया । कुदरत के इस कानून से किसी का भी बचना नामुमकिन है । जो ईश्वर की शरण लेता है वह उसके राज़ को जान लेता है ।
रुखीबा की स्मशानयात्रा में मैं भी शामिल हुआ । साबरमती के तीर पर उनके पार्थिव शरीर को रखा गया और अग्नि की पावन ज्वालाओं ने उनके शरीर को घेर लिया । सरिता के शांत तटप्रदेश पर बैठे-बैठे मैंने शरीर की विनाशशीलता और जीवन की अनित्यता के बारे में चिंतन किया । मैंने यह तय किया कि शरीर की ममता न करते हुए आत्मोन्नति के उच्च शिखर पर आसीन होने के लिये पुरुषार्थ किया जाय ।