Swargarohan | સ્વર્ગારોહણ

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प्रश्न – स्थितप्रज्ञ पुरुष किसे कहते हैं ॽ
उत्तर – गीता के दूसरे अध्याय में स्थितप्रज्ञ पुरुष का उल्लेख किया गया है । जिसकी बुद्धि स्थिर हुई हो और जिसका मन संकल्प-विकल्प से रहित होकर परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव कर चुका हो उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं । गीता में ऐसे पुरुष के लिए गुणातीत शब्द का प्रयोग भी किया गया है ।

प्रश्न – ऐसे पुरुष को पहचानने के कुछ बाह्य लक्षण है ॽ
उत्तर – बाह्य लक्षणों का अर्थ यदि आप बाह्य दिखावा करते हैं तो मुझे कहना पड़ेगा कि उसके बारे में स्थितप्रज्ञ की दुनिया में कोई एक समान नियम नहीं है । कतिपय लोग मानते हैं कि स्थितप्रज्ञ पुरुष अमुक प्रकार का भेष धारण करता है और अमुक रीति से ही रहता है परंतु यह मान्यता प्रत्येक परिस्थिति में उचित नहीं है । बाह्य दिखावे की दुनिया में स्थितप्रज्ञ पुरुष अपनी इच्छा, रुचि या पसंदगी के अनुसार बर्तता है । वह किसी निर्धारित नियम के आधीन नहीं है । इस परसे उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता । वैसा मूल्यांकन गलत ही साबित होगा । फिर भी स्थितप्रज्ञ की पहचान के लिए कतिपय अंतरंग लक्षण हैं जिनकी प्रतिध्वनि बाहर की दुनिया में या उनके बहिर्मुख जीवन व्यवहार में पड़ती है । इस लक्षणों के कारण हमें उनको पहचानने में सहायता मिलती है ।

प्रश्न – ऐसे लक्षणों का सिंहावलोकन प्रस्तुत करेंगे आप ॽ
उत्तर – अवश्य । स्थितिप्रज्ञ पुरुष का प्रथम लक्षण तो यह है कि उनके भीतर व बाहर परमशांति का साम्राज्य दिखाई देता है । ईश्वर-साक्षात्कार के परिणामस्वरूप जो परमशांति की अनुभूति उन्हें हुई होती है वह उसके मुख पर, आँख में, वाणी में और हलनचलन में दृष्टिगोचर होती है । उसके समीप जाने पर ही हमें उस शांति का परिचय मिलता है । किसी भी समय या परिस्थिति या स्थल में शांति का प्रवाह अबाधित रूप में जारी रहता है । मनुष्य मात्र वैसी अखंड और सनातन शांति की कामना करता है, उसके लिए परिश्रम करता है परंतु यह शांति उसके भाग्य में नहीं होती क्योंकि वह शांति केवल मन बुद्धि से अतीत होने से अथवा अतीन्द्रिय प्रदेश में प्रवेशित होने से मिल सकती है । इसके लिए आत्मिक साधना का आश्रय ग्रहण करना चाहिए और वहाँ तक उत्साह और हिम्मत से आगे बढ़ना चाहिए, जहाँ तक उसमें सफलता न मिले । इस पथ पर बहुत कम लोग प्रयाण करते हैं अतएव बहुत कम लोग वैसी शांति की प्राप्ति कर सकते हैं, यह बात दुनिया का निरीक्षण करने से हम समझ सकते हैं ।

प्रश्न – शांति प्राप्त करने के लिए क्या आत्मिक साधना का आधार लेना चाहिए या किसी अन्य तरीके से भी उसकी प्राप्ति हो सकती है ॽ
उत्तर – किसी अन्य तरीके से – इससे आप क्या कहना चाहते हैं ॽ

प्रश्न – दुन्यवी सुखोपभोगों से भी शांति उपलब्ध होती है ।
उत्तर – किंतु वह शांति तो कितनी अस्थायी, उपरी या अधूरी होती है, यह आप आसानी से समझ सकेंगे – जैसे वर्षाऋतु में होनेवाली बिजली चिरस्थायी नहीं रहती उसी तरह दुन्यवी विषयों या सांसारिक सुखोपभोगों से जन्य शांति अमर या शाश्वत नहीं रहती । उस शांति का आधार तो बाह्य पदार्थों एवं संजोगो पर रहता है अतः वैसा आधार दूर होते ही या विपरीत होते ही वह गायब हो जाती है और उस समय मनुष्य अशांत हो जाता है । किंतु स्थितप्रज्ञ पुरुष की शांति तो मन की निर्मलता, स्थिरता और ईश्वर-साक्षात्कार के परिणामस्वरूप अपनी आत्मा से स्वतः प्राप्त हुई होती है अतएव वह कभी नष्ट नहीं होती । उसका आधार किसी बाह्य पदार्थ या परिस्थिति पर नहीं होता । यह महत्वपूर्ण भेद अब आप जान गये न ॽ

- © श्री योगेश्वर (‘ईश्वरदर्शन’)