जैसा की मैंने पहले बताया, उन दिनों आश्रम की बाल्कनी या छत पर मैं अकेला सो जाता था । ईस बात से कई छात्रों को बडी हैरानी होती थी और उसकी वजह बडी दिलचस्प थी । बात यूँ थी की हमारी संस्था में एक या दो नहीं मगर तीन-तीन प्रेत रहते है एसी बात लंबे अरसे से चली आई थी । कुछ छात्रों के स्वानुभव से उसे समर्थन मिला था । बस, फिर तो क्या कहेना ? और तो और, न केवल गिनेचुने छात्र उनमें शामिल थे, छात्रालय में भोजन पकानेवाले चपरासी ब्राह्मिन सहित काफि लोग उनका समर्थन करते थे ।
एक दफ़ा बारस (एकादशी के पश्चात का दिन) के लिए संस्था के भोजनालय में लड्डु बन रहे थे । छात्रों की संख्या विशेष होने के कारण सुबह उठके लड्डु बनाना मुश्किल होता था, ईसी वज़ह से ये काम अगले दिन रात से ही शुरु करना पड़ता था । जब लड्डु बन रहे थे तो भोजनालय की खिड़की के पास एक पारसी को वस्त्रों की गठरी लेकर जाते हुए देखा । आधी रात को कपड़े धोने के लिए कौन गया होगा ये सोचकर महाराज ने टोर्च लेकर उसे ढूँढना चाहा । सबने साथ मिलके ढूँढा मगर कुछ दिखाई नहीं दिया । सिर्फ पानी के नल के पास कपड़े धोने का आवाज आया । नजदीक जाने पर वहाँ कुछ दिखाई नहीं दिया और आवाज़ भी लुप्त हो गई ।
ये बात दुसरे दिन फैल गई । सब छात्रों ने अपने अनुभव का सूर मिलाया । तब जाकर ये बात सुनने में आयी की प्रेत एक नहीं बल्कि तीन थे । संस्था का मकान पहले एक मराठी ब्राह्मण का था, उसके पहले एक पारसी का और उसके पहले एस ख्रिस्ती का । मृत्यु पश्चात वो तीनों प्रेत हुए थे और छात्रालय के मकान के आसपास घुमते रहते थे ।
एक दिन एक सीनियर छात्र ने अपना अनुभव सुनाया, "मैं छात्रालय की बाल्कनी में अक्सर अकेला सोया करता था । एक दिन जब मैं नींद में था तो कोई मराठी जैसे आदमी ने मुझे जग़ाया और कहा की ये सोने की जगह नहीं है, कल से कहीं और सोने का बंदोबस्त कर लेना । फिर भी मैंने उसकी बात नहीं मानी । दूसरे दिन भी वो आया और मुझे जोर से चाँटा मारकर कहने लगा कि मैंने कहा था कि ये सोने की जगह नहीं है, फिर भी यहाँ क्यूँ आया ? एसा कहकर उसने मेरे बिस्तर और कंबल को घसीटकर गेलेरी के कोने में फैंक दिये । बस तब से लेकर आज तक मैंने दोबारा वहाँ सोने की हिंमत नहीं जुटायी । आपको भी मैं वही सलाह दूँगा की आप भी वहाँ सोने की कोशिश न करें ।"
मैंने उनकी बात सुनी-अनसुनी कर दी । उनकी बात सुनने के बाद मेरा मन बाल्कनी पर सोने के लिए बेबाक होने लगा । रात को छत पर टहलते हुए या बिस्तर में लेटे हुए मैं बडी उत्सुकता से प्रेत के आने का इंतजार करता, उसे देखने को आतुर रहेता । मैं सोचता कि मैंने प्रेत का क्या बिगाड़ा है जो मुझे उससे डर लगे ? अगर वो मुझे दिखाई दे तो मैं उसे सन्मार्गगामी बनने की सलाह दूँगा । मैं निर्भय था ईसलिए बिना कीसी धबराहट छात्रालय की बाल्कनी में सोता रहा । लगातार करीब तीन साल तक सोने के बाद भी मुझे प्रेत का कोई अनुभव नहीं हुआ । मेरे छात्रालय से विदाय होने पश्चात ओर एक छात्र नें वहाँ सोना शुरु किया । आश्चर्य तो ईसी बात का था की करीब दो-तीन दिन पश्चात किसीने उस छात्र को बिस्तर से जगाकर कहा की ये सोने की जगह नहीं । धबराहट के मारे उस दिन से छात्र ने वहाँ सोना छोड़ दिया और नीचे हॉल में सोना शुरु किया ।
बाद में जब वो मुझे मिले तो उसने मुझे पूछा, "अरे, ऐसी जगह में ईतने लंबे अरसे तक आप कैसे सोये ? क्या प्रेत के साथ आपकी कोई जान-पहेचान थी ?"
मैंने प्रत्युत्तर में कहा, "ये तो ईश्वरेच्छा की बात है । मेरी प्रेतों से कोई जान-पहचान नहीं थी की जिसके कारण वो मेरे साथ सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार करें । फिर भी जब कभी उनसे आमना-सामना होगा तो ईसका जिक्र मैं जरूर करूँगा । फिलहाल तो ये कहना मुनासिब होगा कि मैं वहाँ सोता था क्योंकि ईश्वर पर मुझे बेहद भरोसा था । मुझे तब भी यकिन था और अब भी है की वो हर हाल में मेरी रक्षा जरूर करेगा ।"
मेरा उत्तर सुनकर उन्हें तसल्ली हुई और मेरे प्रति उनका आदर बढ़ गया । फिर भी संस्था की बाल्कनी में अकेले सोने की हिंमत वो नहीं जुट़ा पाया ।
तो क्या प्रेत नाम की कोई चीज है ही नहीं ? वो केवल गिनेचुने लोगों के मन की कल्पना, वहेम व अंधश्रद्धा है ? वाचकों को यह प्रश्न होना स्वाभाविक है । उसके उत्तर में मैं सिर्फ ईतना कहूँगा की जैसे मनुष्यों की योनि है, बिल्कुल उसी तरह भूतप्रेतों की भी योनि है, उनका भी अस्तित्व है । उनका अस्तित्व कोई कवि की मनगढत कल्पना नहीं, और ना हीं कोई अंधश्रद्धा व वहेम का प्रकट स्वरूप । मनुष्येतर कई योनियाँ ईस धरती पर अस्तित्व रखती है, प्रेतयोनि भी इनमें से एक है । धर्मग्रंथो में उनके अस्तित्व की पुष्टि की गई है । महाभारत, श्रीमद भागवत, रामायण व भगवद् गीता में उनके अस्तित्व के बारे में प्रकाश ड़ाला गया है । उनके हिसाब से प्रेतयोनि के जीव सूक्ष्म स्वरूप में रहते है और किसी स्थूल शरीर के विना ही अपना जीवन बीताते है ।
बहुत सारे किस्सों में यह देखा जाता है कि व्हेम और अंधश्रद्धा से पीडित लोग भूतप्रेत की बातों को फैलाने का काम करते है और उसे सुनकर लोग डर जाते है । जैसे की "गाँव के ईस घर में प्रेत का निवास है और वहाँ रहने की कोई हिंमत नहीं करता । अगर कोई रहने की हिंमत जुटाता है तो भूत अपनी शक्ति का परिचय अवश्य देता है ।" कहीँ ये भी सुनने में आता है की "ईस कुएँ में रात को प्रेत नहाने के लिए गोता लगाते है ।" तो कभी लोग ये कहते हैं की "गाँव के चौराहे पर व पिपल के वृक्ष पर प्रेतों का नित्य निवास रहता है ।"
बड़ौदा में ऐक योगी ने किसी धनिक आदमी के मकान में निवास किया । बंगले की बग़लवाली जमीन में बड़ा गढ्ढा गाड़कर उन्होंने समाधि लेनी चाहि । पूर्वसुचना देकर योगीपुरुष ने समाधि में प्रवेश किया । नौ दिन के बाद वो बाहर निकलने वाले थे मगर निकलने के कुछ दिन पूर्व गढ्ढे में से दुर्गंध आने लगी । खोदने पर पता चला कि योगीजी तो चल बसे थे । फिर तो क्या कहेना ? उस घर के आसपास जाने से भी लोग ड़रने लगे । उनका यह मानना था कि योगीपुरुष की दुर्गति हुई है और वो प्रेत बनके वहाँ घूमा करते है । ये किस्सा बताने का मेरा उद्देश ये है कि भूतप्रेत की बातें सिर्फ देहातों में ही नहीं, शहरों में भी चलती रहती है । पश्चिम के कई देशों में मृतात्मा को बुलाकर उनके साथ बातें करने के प्रयोग अक्सर होते है । ईसलिए भूतप्रेत की बातों को गुब्बारे समझकर उड़ा देना ठीक नहीं है । उसके पीछे एक निश्चित विज्ञान जरुर होगा । मनुष्य की अनुभूति का दायरा अभी सिमीत है । संसार के कई रहस्यों का पता लगाना अभी बाकी है । ईसी बज़ह से भूतप्रेत की बातों को निरर्थक समझ कर उड़ा देना मैं ठीक नहीं समझता ।
ईतने विवरण के बाद, ये कहना लाज़मी होगा की भूतप्रेत के बहुत सारे किस्से लोगों के बने-बनाये होते है । ये भी देखा गया है की छोटी बात को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत की जाती है या तो परापूर्व से सुनी बातें बिना सबूत के फैलायी जाती है । वास्तविकता से उनका कोई मेलजोल नहीं होता । ईन हालातों में आदमी को सच-झूठ की पऱख रखनी चाहिए और अपनी विवेकशक्ति का ईस्तमाल करना चाहिए । मैं तो ये कहूँगा की भूत-प्रेत की बातें चाहे कितनी भी सच्ची हो, आदमी को नाहिंमत या डरपोक बनने की कोई आवश्यकता नहीं । उसे तो हर हाल में नीडर व बहादुर बनना चाहिए ।